(ये साहिर लुधियानवी के गीत "जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं" के आधार पे लिखा गया है| इसे साहिर को मेरा सलाम समझें, और इस मुल्क़ से मेरी मुहब्बत और उस वज़ह से पैदा होते ग़म का बयान समझें| कही से भी इसे साहिर की पंक्तियों से न तौलें, मैं और भी ज्यादा बौना लगूँगा|)
ये लुटते कस्बे, ये बिखरते घरौंदे
ये इज्ज़त की मैली चादर के सौदे
ये संगीन के साए में डरते ज़र्द पौधे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं
ये खेलों पे खेल, ये खेलों की दलाली
ये बदस्तूर ग़रीबी, बापर्दा बदहाली
ये खुशियों का वहम, बेघरों से जलती दिवाली
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं
राम नाम का बाज़ार, अल्ला पे धंधे
ये नासूर मज़हब में मदहोश बे-रूह बन्दे
ये रहबरों की साज़िश, और हम सब है अंधे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं
ये ख़ुद पे ही हमनें दुनाली है तानी
अज़ब पेशोपश है, गज़ब ज़िद है ठानी
बने अपनों के बैरी, हम वहशी अभिमानी
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं
ये बदस्तूर ग़रीबी, बापर्दा बदहाली
ये खुशियों का वहम, बेघरों से जलती दिवाली
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं
राम नाम का बाज़ार, अल्ला पे धंधे
ये नासूर मज़हब में मदहोश बे-रूह बन्दे
ये रहबरों की साज़िश, और हम सब है अंधे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं
ये ख़ुद पे ही हमनें दुनाली है तानी
अज़ब पेशोपश है, गज़ब ज़िद है ठानी
बने अपनों के बैरी, हम वहशी अभिमानी
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं